12/21/2012

कब तक "प्रशांत "बहता


एक स्तित्व की तलाश मे 
बहार गुजर जाने के बाद
पतझड़ मे पत्ते ने कदम बढ़ाया
हरे बगीचे को छोड़ना चाहा 
पेड़ ने उसकी पीठ थपकाई
पेड़ की शाबाशी से हो अहलादित
पत्ते ने उड़ान भरी
पर, कब तक "प्रशांत" बहता 
पेड़ की भी एक सीमा थी
वो जमीन पर आ गिरा
माध्यम सी ब्यार बही
एक नवीन -ऊर्जा पत्ते ने महसूस किया
पत्ते ने फिर उड़ान भरी
यूं भी अब जीवन-सत्रोत नहीं था 
पत्ते को अब कहाँ 'नेह" मिलता
पत्ते को ये एहसास था
खड़खड़ाते हुये भी "प्रशांत" चल पड़ा था
पर,लड़खड़ाते ख्वाबों के सहारे
कब तक पते को सम्मान मिलता
पत्ते को भी मिटना था
यूं, तो "प्रशांत" ख्वाब था हरे बगीचे का। 
Note-Part of artwork is borrowed from the internet ,with due thanks to the owner of the photographs/art