9/27/2014

मेलवा के रंग,संग पेटवा के भूख

आज मेरे घर चुल्हा नहीं जला                                       
मै तो ख़ुश हूँ,बाहर लगे मेले हैं
फिर माँ के माथे पे
क्यों ये लकीरें हैं।                                                                  
कल जब जलेबी मांगा था तो
बाऊ ने कहा था जलेबी खाओगे तब
खनमा किस पेट मे खाओगे।
मैंने कल से ही सोच रखा है
क्या-क्या मैं मेले में खाऊँगा,
दम भर ठूँस कर जलेबी खाऊँगा  
जब मिठका से अघा जाऊंगा,
तब फूचका से मुँहा के स्वादवा बदलूँगा
फिर कुछ रंगल लेमानचुसवा लूँगा,
खूब देर चूस-चूस जीभ लाल-हारा करूंगा
फिर शान से जीभ निकालूँगा
कल सरवा ललन खूब चिढ़ाया था,
आज मै उसे खूब चिढ़ाऊंगा।
मै उत्सुक जिज्ञासा की परिधि में घिरा
उछल-कूद माँ-बाऊ के पास जाता
कब चल रहें हैं हम मेलें में
हर घड़ी बदलती,
मैं अनुमान लगाता रहा।
मैं ख़ुश हूँ फिर भी बहुत,
बाहर लगे मेले हैं।
मेरी आवाज अब भर्राने को थी
सब्र का बाँध अब टूटने को था
कोमल मन अब पिता से रूठने को था
मेले जाने की इच्छा पे अब,
पेट की भूख जीतने को थी
तभी घर मे हलचल बढ़ी
माँ भन्सा-घर की ओर बढ़ी
मै सरपट भागा उन्हे रोकने को  
माँ आज चूल्हा मत जलाओ,
आज कम से कम आराम तो करलो
मै अभी भूखा नहीं,
बाहर लगे मेले हैं
भले ही संझिया को चलना
मै इंतज़ार कर लूँगा
तभी माँ भन्सा-घर से बाहर निकली
मेरे चेहरे की दमक बढ़ने लगी
फिर माँ के माथे पे
क्यों ये लकीरें हैं।                                       
                      




Note-Part of artwork is borrowed from the internet ,with due thanks to the owner of the photographs.

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