9/22/2018

अकेला पेड़


नीला आसमान चिढा रहा है
अपनी ऊँचाई पे आज
और क्यों न चिढ़ाए
मैं जमींन पे जमींन में धस्ता जा रहा हूँ
एक पिलपिलती हुई सड़क पे मैं चल रहा हूँ
महान हिंदुस्तान की गोद में
कीचड़ में सन कर
पर मैं आह्लादित हूँ अपने अतीत की जड़े खोदकर
और आज के यक्ष प्रश्नों को अनंत काल तक टाल कर
मैं अपने पैरों को कीचड़ में और अंदर तक धँसाना चाहता हूँ
और पिसल कर अपने पूरे बदन को
पर मैं नही कर पा रहा हूँ
अनंत काल पे धकेले गए प्रश्न मुझे रोक रहे हैं।
कुछ एक अकेले पेड़ मुझे देख रहे हैं
मानो मुझ से अपने अकेलेपन का हिसाब माँग रहे हों
और मैं उन्हें टाल पाने में भी असमर्थ हूँ
लोकतंत्र के महान नेताओं से मैंने अभी तक कुछ नहीं सीखा हैं
बस मैं स्कूल के उस बच्चे की तरह हूँ
जो अधूरा उत्तर जनता हैं और कतराता है कुछ भी कह पाने से
और मैं उस अकेले पेड़ को समझता तो भी क्या समझता,
विकास की कहानी वो समझ भी तो नहीं पाता
और मैं अपने कीचड़ में सने पैरों को भी उससे छुपा नहीं पा रहा था
मुझें डर भी था
कहीं वो भी न मुझे चिढाने लगे
और विकास को बदनाम करने का आरोप मुझ पर लगने लगे।
मैं अब अपने पैरों को लेकर मेट्रों में जाने की हिम्मत जुटाने में लगा हूँ
कहीं विकास अपमानित न महसूस करने लगे
और विकासशील देश को रोकने का आरोप मुझ पर न लगने लगे
आखिर विश्वगुरु होने का दंभ लिए
देश अकेला तो नहीं चल सकता हैं
और मैं देशभक्ति की आंधी में
अकेला नही पड़ सकता हूँ
उस अकेले पेड़ की तरह
आखिर में मैंने उस पेड़ को भी देशभक्त पेड़ समझ कर उसके अकेलेपन के दर्द को
देश की विकास में भूल गया हूँ
जय भारत जय विकास के नारे से
खुद को स्वच्छ कर मेट्रो में सवार हो गया हूँ
और आसमान को मुँह चिढाने
लोकतंत्र के महान नेताओं के
टालने के गुणों को अपना कर
मेट्रो से उतरने का इंतज़ार कर रहा हूँ।



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