5/03/2012

"अलग -थलग "

मै  पड़ गया हूँ अलग थलग
जागने सोने के चक्कर में 
खोने पाने के क्रम में
दुःख सुख के जाल में
नाम अमर और बदनाम होने के भैय  से 

मै पड़ गया हूँ अलग थलग
अपनों के बिछड़ने के डर से
बहार आने से पहले उजड़ने के डर से
फूलों के मुरझाने से 
कांटें चुभने  के डर से 
 मै पड़ गया हूँ अलग थलग 

अपनों की भीड़ में 
परायों  के  चक्कर में
मरने के डर से जीने के चक्कर में 
मै पड़ गया हूँ अलग थलग

सबसे दूर हो गया  हूँ
रेल के सफ़र में 
रेल समय पे आने पे 
रेल छुटने के भैय से 
रिक्सा खोजने के चक्कर में 
पैदल ही पहूच गया हूँ स्टेशन 

मै पड़ गया हूँ अलग थलग सफ़र में
रेल की सवारी में सीट ना मिलने पर 
अपने डब्बे में चल रहे हम सफ़र से 
बहस छिड़ जाने के भैय से 
खड़े ने रह कर बैठने के चक्कर में

मै पड़ गया हूँ अलग थलग 
आज कल के चक्कर में 
मै पड़ गया हूँ घन-चक्कर में 
नींद न न पे भी आँख बंद किये रहने के चक्कर  में

मै पड़ गया हूँ अलग थलग
सफ़र पूरा होने पे 
पानी भर ने में
प्यास बुझाने  के चक्कर में
खाना खाने के क्रम  में
पानी ही पी लेता हूँ उलझे पल में  

मै पड़ गया हूँ अलग-थलग  जीवन में.
जिन्दगी भी रेल के सफ़र जैसी है
अलग थलग उलझी-उलझी है
जिन्दगी के बारे में सोचने के चक्कर में
मर रहा हूँ मै हर पल में 
Note-Part of artwork is borrowed from the internet ,with due thanks to the owner of the photographs/art

कोई टिप्पणी नहीं: