हे नेह ,मुझे कभी लगता है
तुम एक निर्मल नदी हो
कभी लगता है तुम मेरे लिए घड़ी हो
अगर मुझे पाना है तो
जल्दी छलांग लगाओ .
कभी लगता है तुम जंगल हो
हमेशा मुझे उलझा कर रखती हो
कभी मुझे कुछ लगा कभी कुछ
एक जैसी तुम कभी न थी
हर छन हर घड़ी बदलती रही.
कभी लगा तुम ख्वाब हो,
जो पूरा नहीं हो ,
कभी लगा तुम ,
मेरे दिल की अरमान हो
मुझसे जुदा कभी नहीं .
शायद तुम छाया हो
रहती साथ साथ हर घड़ी.
नहीं नहीं तुम तो हो एक जिद्दी लड़की ,
हर वक़्त अपने जिद पे अटकी
तो अगले ही पल तुम से जाना
तुम्हे झूठ बोलने में प्राप्त है पी. एच. डी.
लेकिन चिढने में हो नॉन मैट्रिक .
कभी तुम्हे अपने आत्मविश्वाश को बढ़ाते पाया
कभी "ना" के बदले "हाँ " कहने की सीख पाया
हर भूमिका में तुमको मैंने मुनासिफ पाया .
हे नेह तुम तो हो मेरी ही रचना
जिसे मैंने रचा हो
अपने लिए अपने हाथो से
तुम मुझ से अलग कहाँ हो
मुझे लगता है
तुम तुम नहीं मै हूँ
शांत, गंभीर , निर्भीक
तुम दर्द हो और दावा भी
पानी भी हो और हवा भी
शांत हो ,ज्वाला भी
तुम जाने हुए हो ,अंजान भी
हर घड़ी तुम्हे अलग जाना
शयद,तुम प्रकाश हो
रहती हो हर कहीं .
तुम सीधी हो, चंचल हो,
आईने सा निर्मल हो
तुम सागर सी ग़हरी हो
आसमान की उच्चाई हो
तुम मेरी साथी हो .
तुम मध्य बिंदु हो
मेरे जीवन की ,
नायिका हो
मेरे कविता की
मेरे कविता की
मेरे तर्क वितर्क की.
अब मुझे लगता है
तुम ख्वाब नहीं
एक सच्चाई हो
तुम मेरी साथी हो.
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